दोहे
मची हुई है खलबली, चारों ओर भिड़ंत ।
सत्ता सुख की होड़ में, डाकू कैदी संत ।।
संविधान की ओढ़नी, खिचती बारम्बार ।
संशोधन के नाम पर, रफ़ू करे सरकार ।।
कहने को सह्ते रहे, सब के सब चुप चाप ।
फटी बिवाई पाँव में, बोल पड़े बुत आप ।।
काया कृष्णा हो गयी, वक्र हुई तकदीर ।
जब भी चाही देखनी, कलियुग की तस्वीर ।।
सीमा में सब कुछ उचित, सीमा लांघी बैर ।
यदि सीमित है आप तो, सदा रहेगी ख़ैर ।।
सूरज है अवकाश पर, धूप न रहती साथ ।
ठिठुर –ठिठुर कर रह गये, दिल्ली के फुटपाथ ।।
अपनों से कटुता मिली, मिला मित्रों से बैर ।
मानवता मिन्नत करें, संबंधों की ख़ैर ।।
गोवर्धन सिर पर रहा, गिरधर नहीं कहाय ।
महंगाई की मार से, मर के मर नहि पाय ।।
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